Sanjeev Kumar: Abhinay Ka Paryay, Ek Kalakaar Jo Kabhi Nahin Bhulaya Jayega

“नायक नहीं, कलाकार बनना चाहता हूँ” – यही सोच थी संजीव कुमार की, जो उन्हें महान बना गई।
भारतीय सिनेमा में ऐसे कई अभिनेता हुए हैं जिन्होंने अपनी छवि से लोगों का दिल जीता, लेकिन संजीव कुमार (जन्म: हरिहर जरीवाला – 9 जुलाई 1938, निधन: 6 नवंबर 1985) उन गिने-चुने कलाकारों में से हैं जिन्होंने अभिनय को नया आयाम दिया। वो ना केवल बहुआयामी भूमिकाओं में माहिर थे, बल्कि उन्होंने अपनी हर भूमिका को जीवंत बना दिया।
विविधता में समाया हुनर
संजीव कुमार ने रोमांटिक ड्रामा से लेकर थ्रिलर, कॉमेडी और सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्मों तक, हर शैली में अभिनय किया। फिल्म ‘अंगूर’ में उनका डबल रोल भारतीय सिनेमा की 25 बेहतरीन अभिनय प्रस्तुतियों में गिना जाता है, जिसे Forbes India ने 100 सालों के सिनेमा उत्सव के दौरान सम्मानित किया।
उनकी अदाकारी में गहराई थी, एक सच्चाई थी – चाहे वो ‘दस्तक’ और ‘कोशिश’ जैसी संवेदनशील फिल्में हों, जिनके लिए उन्हें दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, या फिर ‘शोले’ में उनका मशहूर ठाठदार ‘ठाकुर’ का किरदार।
ग्लैमर से परे एक यथार्थवादी कलाकार
संजीव कुमार उन विरले अभिनेताओं में से थे जो अपनी उम्र से कहीं अधिक बड़े किरदार निभाने में भी नहीं हिचकिचाते थे। ‘कोशिश’ में एक मूक-बधिर व्यक्ति की भूमिका हो या ‘नया दिन नई रात’ में नौ अलग-अलग भूमिकाएं – उन्होंने हर किरदार को आत्मसात किया।
उनकी कुछ यादगार फिल्में हैं:
- ड्रामा: खिलौना (1970), देवता (1978), त्रिशूल (1978)
- थ्रिलर: शिकार (1968), उलझन (1975), क़त्ल (1986)
- कॉमेडी: पटी पत्नी और वो (1978), अंगूर (1982), बिवी ओ बिवी (1981)
सम्मान और उपलब्धियां
- राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार: दस्तक (1970) और कोशिश (1972) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता
- रेडिफ़ की पोल में सातवें सबसे महान अभिनेता का खिताब
- फोर्ब्स इंडिया द्वारा अंगूर में उनकी भूमिका को 25 श्रेष्ठ प्रदर्शन में स्थान मिला
जल्दी अलविदा, पर अमिट छाप
6 नवंबर 1985 को महज 47 वर्ष की उम्र में संजीव कुमार ने दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनके किरदार, संवाद और अभिनय आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं। उन्होंने साबित किया कि एक सच्चा कलाकार वही है जो हर भूमिका को सच्चाई से निभाए – नायक की तरह नहीं, इंसान की तरह।
“संजीव कुमार ना सिर्फ एक अभिनेता थे, बल्कि अभिनय का अद्भुत विद्यालय भी थे। उनके बिना भारतीय सिनेमा अधूरा है।